Menu
blogid : 2615 postid : 120

कैसे करें मंत्र सिद्धि ?

gopalrajuarticles.webs.com
gopalrajuarticles.webs.com
  • 63 Posts
  • 78 Comments

कैसे करें मंत्र सिद्धि ?

मंत्र की सिद्धि करना एक कठिन विषय है। इसके लिए यम-नियमादि का लंबा-चैड़ा तथा क्लिष्ट मार्ग पार करना होता है। योग साधना की प्रमुखतः चार प्रणालियों-मंत्र योग, हठ योग, लय योग तथा राज योग में से मंत्र साधना को ही प्रथम स्थान माना गया है। वृृहस्पति, नारद, गर्ग, भृगु, बाल्मिकी तथा पुलस्त्य आदि इस योग के आचार्य माने गये हैं। चन्द्रमा की 16 कलाओं की तरह मंत्र योग भी 16 कलाओं से युक्त है। यह अंग हैं- भक्ति, षुद्धि, आसन, पंचांग सेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेष सेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान तथा समाधि।

तंत्र साधक अथवा अध्यात्म मार्ग के सच्चे जिज्ञासु कर्मकाण्ड विषेषज्ञों की सहायता से इस विषय में आगे बढ़ जाएं, यह संभव है परंतु जीवन की आपाधापी में व्यस्त अन्य जन साधारण के लिए मंत्र योग की लंबी प्रक्रिया मंे जाना संभवतः बहुत कठिन होगा।

जीवन के अपने लंबे व्यक्तिगत अनुभव, अध्ययन, स्वाध्याय तथा मनन-गुनन से मैं इस निष्कर्ष पर पहॅुचा हॅू। कि पूजा बहुत लंबी अथवा क्लिष्ट न हो कर प्रभावी हो। कोई भी उसे सरलता तथा सहजता से अपनाकर अपने नित्य जीवन का एक आवष्यक अंग बना सके। पूजा-ध्यान आदि ऐसा हो कि कोई भी भले ही एक-आध मिनिट को उसके लिए बैठे तो उस का चित्त उच्चाट न हो, उस सबसे उसको कम से कम मानसिक षान्ति अवष्य मिले। उसकी मानसिकता जनित विकार दूर हो जाएॅ। जीवन के आवष्यक अन्य दैनिक कार्यो की तरह आलस्य, प्रमाद अथवा समयाभाव आदि कारणों से यदि यह आवष्यक अंग भी कभी छूट जाए तो सारे दिन आप के मन में एक अभाव सा बना रहे तथा पूजा आदि कर्म न करने का पश्चाताप होता रहे। जब ऐसी भावना अथवा मनःस्थिति आपकी होने लगेगी तब समझ लीजिए आपका मंत्र जप योग सिद्ध होने लगा है। यह अवस्था आप कब अर्थात कितने समय में प्राप्त कर लेते है, यह सब निर्भर करेगा आपकी लगन, आस्था और एकाग्रता पर। एक बार को यह सब कठिन लगेगा। परंतु कुछ समय के अभ्यास के बाद आपको यह सब सरल लगने लगेगा तदनुसार मंत्र, नाम, ध्यान, पूजा आदि का सुप्रभाव भी आपको स्पष्ट दिखाई देना प्रारंभ हो जाएगा। लगन और आस्था आप पैदा कीजिए, एकाग्रता आपको गोपाल राजू के प्रयोगो से मिल जाएगीं।

मानसिकता से उत्पन्न हुए विकारों के विपरीत प्रारब्ध से मिले कर्मों के दुष्परिणामों के निदान अधिकांषतः जल्दी नहीं मिलते। षान्त बुद्धि से स्वयं मनन करें कि जो जन्म-जन्मान्तरों के दुष्कर्म हम संचित करते आ रहे हैं वह इतनी षीघ्रता से कैसे दूर हो जाएंगे ? तथापि इनको दूर करने के क्रम – उपक्रम आदिकाल से विष्वस्तर पर किए जा रहे हैं। इन सबमें कितनी व्यवसायिकता है और कितना निःस्वार्थ भाव यह सब हम दैनिक जीवन में बड़े-बड़े बैनर मीडिया, सौ प्रतिषत लाभ दिलाने वाले तांत्रिक-मांत्रिक, राजनीतिक संरक्षण प्राप्त बड़े-बड़े साधु महात्मा अथवा स्वयंभू आदि के रूप में देख-सुन रहे हैं तथा भोग रहे हैं। पुरुषार्थ से भाग्य एक निष्चित सीमा तक ही प्रभावित किया जा सकता है फिर सौ प्रतिषत लाभ दिखवाने वाले तथाकथित स्वयंभू कहलाने वाले क्या है, यह आप स्वयं अपने बुद्धि-विवके से चिन्तन करें।
जो भी धरम, करम, पूजा, जप अनुष्ठान आदि हम आध्यात्मिक भाव से कर रहे हैं उसमें आत्मसात हो, दिव्य प्रकाष से एकीकार हो, दिव्य प्रकाष रूपी सूक्ष्म आत्मा तथा परमात्मा अर्थात समस्त बह्मा्रण्ड एक ही पिण्ड बन जाए तब ही धरम, करम आदि सार्थक है अन्यथा जो कुछ भी आप कर रहे हैं वह समझ लीजिए सब स्वार्थवष है और मा़त्र भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए है। यह पूर्णता कदापि नहीं है। यह स्पष्ट रूप से समझ लीजिए कि भौतिक कामनाओं मात्र की पूर्ति के लिए किए जा रहे नाम, जप, योग आदि स्थाई कदापि नहीं हैं। दिव्य प्रकाष से एकीकार हो जाना ही परमानन्द है, यही चिरस्थाई हैं और यही पूर्णता है।

आत्मसात की दिव्य अवस्था को आप जल्दी से जल्दी प्राप्त करलें इसके लिए आप नित्य सूर्य को अघ्र्य दें। सूर्य के सामने आंखें बन्द करलें और आंखों में ही ऊष्माके रंग को बसाने का अभ्यास करें। प्रारम्भ में आंखें बन्द करने के बाद आपको अंधकार ही अधंकार दिखाई देगा। धीरे-धीरे अभ्यास के बाद बन्द आंखों में भी आपको ऊषा की लाली सा दिव्य नारंगी रंग दिखने लगेगा। सूर्य से अलग हटकर जब अन्यत्र भी आंखों बन्द करते ही अंधकार के स्थान पर वही नारंगी रंग दिखाई देने लगे तो समझ लीजिए कि अध्यात्म की दिव्यता वाली प्रथम सीढी पर आप पैर रखने जा रहे हैं।

दर्पण का एक अन्य प्रयोग मैं अपने साधकों को करवाता हॅू,आप भी लाभ उठाएं। किसी सुखद स्थिति में बैठकर अथवा खड़े होकर दर्पण में अपना चेहरा निहारें। सहज रूप् से चेहरा देखते हुए आॅंखें बन्द कर लें। अभ्यास करें कि बन्द आॅंखों में भी आप अपनी स्वयं की छवि देख रहे हैं। छवि ओझल होने लगे तो पुनः आॅंख्ेंा खोलकर दर्पण में चेहरा निहारते रहें। ध्यान रखें यहाॅं त्राटक नहीं करना हैे, यह हठ योग है और मैं यहाॅं विषुð सहज योग की बात कर रहा हॅंू अर्थात जो सहजता से स्वतः ही होता चले। जब दर्पण के अतिरिक्त भी कहीं किसी भी समय आॅंखें बन्द करने पर आपको अपनी ही छवि दिखती रहे और लम्बे समय तक यह स्पष्ट बनी रहे, ओझल न हो तब अभ्यास करिए कि यह रूप धीरेश्धीरे आपको जीवन के सर्वाधिक सुन्दर रूप की तरह बनकर स्थिर हो रहा है। अधिक अभ्यास करते जाएंगे तो ऊषा की दिव्य लालिमा सा सुन्दरतम आपका अपना रूपश्रंग आॅंखें बन्द होते ही सामने आने लगेगा। एक अवस्था ऐसी आने लगेगी जब खुली आॅंखेंा में भी यही सुन्दरतम छवि बस जायेगी। उठते, बैठते, जागते, सोते जब यह सुन्दर रूप स्थाई होने लगेगा तब समझ लीजिए कि अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी पर आपने पैर रख दिया है। अपने इस ध्यानरूपी दिव्यरूप को अभ्यास करतेश्करते अखिल ब्रह्माण्ड से जोड़तेे जाएं। एक अवस्था ऐसी आ जाएगी कि मानों आप अखिल ब्रह्माण्ड से जोड़ते जाएं। एक अवस्था ऐसी आ जाएगी कि मानों आप अखिल ब्रह्माण्ड में ही विचरण कर रहे हैें। भौतिक षरीर तथा भौतिक रूप तो इतने छोटे लगने लगे हैं कि सब नन्हेश्नन्हे से कीटश्पतंगे हों।

इसी क्रम में नाम, मंत्रादि जप प्रारम्भ करने से पूर्व गोपाल राजू का सरलतम प्रयोग करके देखिए, आप एक षब्द अवष्य कहने लगेंगे – मुझे अच्छा लग रहा है। इससे आगे बढना, सच पूछें तो निर्भर करेगा अपनेश्अपने व्यक्तिगत प्रारब्ध मथा पुरुषार्थ पर।

दो फूलदार लौंग षुð घी में डुबाकर, आधा चम्मच हनुमानजी पर चढने वाला सिंदूर, दो छोटी इलाइची तथा कपूर एक साफ सी कटोरी में लेकर आग पर गरम करें। आग में हल्केश्हल्के जलाकर भभूत बना लें। यह ध्यान रखें कि भभूत जलकर कोयला सरीखी न बन जाए। इस भभूत में अपने स्नेहियों को मैं अपनी बनाई विषेष भभ्ूात भी वर्ष के दोश्चार षुखमुहूर्तों में मिलवाता हूॅं। अपनी भभ्ूात को ठण्डा कर के रखलें। साधनासे पूर्व दोनों भवों के मध्य आज्ञाचक्र पर इसे अपनी अनामिका उॅंगली से छुआकर हल्का सा दबाव दें। हल्का सा मुॅह ऊपर कर लें। मुॅह मुस्कराने की मुद्रा में ख्ुालता हो तो खोल लें। अपना सारा ध्यान आज्ञाचक्र पर केन्द्रित कर लें। चेहरे को एकदम तनावमुक्त करलें। अनुभव करें कि आपका मस्तिष्क आचारश्विचार विहीन हो रहा हैं, बिल्कुल षून्य। इस षून्य में आपको केवल दिव्य प्रकाष ही दिखाई दे रहा है। इसमें धीरे-धीरे अपनी छवि स्पष्ट करें। एक ऐसी अवस्था आने लगेगी कि सब कुछ षून्य है, ऊषा की लाली सा एक दिव्य प्रकाष है और यह सब आपकी सुन्दरतम एक छवि है। यह सब आज्ञाचक्र में नहीं वरन् अखिल ब्रह्माण्ड में हो रहा है। जीवन का वस्तुतः यह सत्य है। इस दिव्यता को षट्चक्रों में कही भी चैतन्य किया जा सकता है।

मंत्र साधना, ध्यान, योग, इष्ट मंत्र, नाम आदि को चैतन्य करने के अपने प्रज्ञा ज्ञान से में अनेक विधियाॅ प्रयोग करवाता हॅू। जिज्ञासु साधकों के लिए भी यहाॅ वह लिख रहा हॅू।

उपरोक्त प्रकार से ध्यान एकाग्र करने के बाद यदि आप कोई मंत्र, नाम आदि सिद्ध करने जा रहे हैं तो सर्वप्रथम उसे कंठस्थ कर लें। जप के लिए अनुकूल स्थान, समय मुहूर्त आदि पूर्व में सुनिष्चित कर लें। वातावरण को सुगन्धित करने के लिए दहकते हुए गाय के गोबर के कंडे पर लौंग, षुद्ध घी, बतासा अथवा षक्कर, कपूर तथा सूखे गोले के छोटे से टुकड़े की धूनी करें। वातावरण मीठी तथा भीनी-भीनी सुगन्ध से सुवासित हो उठेगा। इस दिव्य सुगंध में आपका ध्यान जल्दी रमने लगेगा। सामान्यतः मिलने वाली धूप, अगरवत्ती आदि का प्रयोग आप अपने बुद्धि-विवेक से करें। यह सड़े हुए मोबिल आयल से बनती है। इन सबसे देवी-देवता प्रसन्न हों अथवा न हों, आपके फेफड़े अवष्य खराब हो जाएंगे।

अपनी सामथ्र्य के अनुसार षुद्ध घी अथवा मीठे तिल के तेल के 9 मिट्टी के दीपक ले लें। रुई के स्थान पर इनमें अपनी लम्बाई के बराबर 9 कच्चे सूत के धागे ले कर उन्हें 5 बार मोड़ कर उनकी बत्ती बनायें। उत्तर अथवा पूरब दिषा की ओर मुॅह करके बैठ जाएं और अपने सामने एक पंक्ति में सब दीपक रख कर प्रज्जवलित कर लें। अब उस मंत्र अथवा नाम आदि की एक माल जप करें जिसे आप चैतन्य अथवा सिद्ध करने जा रहे हैं। जब एक माला पूरी हो जाए तो सुगन्धित सामग्री की धूनी करें। अब दूसरे क्रम में अपने मंत्र की दूसरी माला पूरी करें। इस बार सबसे बायीं ओर रखा हुआ दीपक उठा कर दांयी ओर वाले दीपक के आगे रख दें और पुनः धूनी करेें। तीसरे क्रम में तीसरी माला के बाद बायीं ओर का दीपक पुनः दायीं ओर वाले दीपक आगे रख दें। यह प्रक्रिया दस मालाओं तक दोहराते रहेेें अर्थात् वायें ओर वाला दीपक उठाएं और दांयी ओर रख दें। इस बार दाहिनी ओर रखा गया पहली बार का दीपक पुनः अपने मूल स्थान पर आ जाएगा। अन्तिम अर्थात ग्यारहवीं बार माला पर जप समाप्त करने के बाद केवल धूनी करें। इस प्रकार आपके मंत्रादि की ग्यारह माला पूरी हो जाएगी और आपकी दीप परिक्रमा पूर्ण हो जाएगी। दांयी ओर रखते हुए दीपक आगे बढ़ते रहेंगे। ऐसे में कठिनाई आयेगी। आप वायें वाले दीपक दायें खिसका कर जगह बनाते रहें। यदि इन 11 दीपकों की अपने चारों ओर रख कर परिक्रमा करवा सकते हैं तो और भी अच्छा रहेगा। इस प्रकार दीप परिक्रमा से सिद्ध किया हुआ मंत्र जप करने के लिए अपने दैनिक जीवन में आप पात्र बन जाएंगे। इसे नित्य जपें। देखें, आप स्वयं को कितना आनन्दित अनुभव करते हंै।

मंत्र जप की पात्रता के लिए जप संख्या का दषांष अर्थात दसवां भाग हवन करने से भी आप नित्य यह दसवां भाग जाप कर सकते है उदाहरण के लिए आप यदि नित्य किसी मंत्र, नाम आदि की एक माला जप करना चाहते हैं तो 9 माला उस मंत्र की जप करने के बाद दसवी माला के प्रत्येक 108 मंत्र जप के बाद हवन करें।

निरंतर आत्मसात अथवा ष्वास-निष्वास में मंत्र नाम जप करने का अभ्यास करने के लिए आपको एक विषेष सावधानी बरतनी होगी। इड़ा तथा पिंगला नाडि़यों में नाम का सतत् मंथन-घर्षण होने से भीषण ऊर्जा उपजती है। इस दिव्य ऊर्जा को सहन करने की षक्ति भी आपमें होना आवष्यक है अन्यथा हानि की संभावना है, अर्थात् कुछ भी हो सकता है। सर्वप्रथम जो दुष्प्रभाव हो सकता है, उससे आपके गला प्रभावित हो। इसलिए सतत् मंत्र अथवा नाम जप करने वाले को कंठ में तुलसी की कंठी अवष्य धारण कर लेना चाहिए।

सच्चे संत-महात्माओं के सानिध्य, सत्संग आदि को यदि आनंद के साथ आप अपने दैनिक जीवन का अंग बना लेते हैं तो सद्ज्ञान वृद्धि होगी, अध्यात्म का कठिन और क्लिष्ट मार्ग सरल होता जाएगा तथा जहाॅ-जहाॅ व्यवधान, षंका और सावधानी बरतनी होगी वहाॅ स्वतः आपका मार्गदर्षन होता रहेगा। अंततः आप स्वयं को समझने-परखने लगेंगे। आपको लगने लगेगा कि भटकने, भागने, सन्यास आदि के मार्ग में आपको कुछ मिलने वाला नहीं है, कुछ पाना है तो अपने अंदर ही खोजना होगा – यही आत्मसात है अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन है और यही जीवन की वास्तविक तथा चिरस्थाई सिद्धि का रहस्य है।
गोपाल राजू (वैज्ञानिक)
(राजपत्रित अधिकारी) अ.प्रा.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh