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शंकराचार्य जी महाराज ने तो छोड़ दी एक फुरफुरी

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शंकराचार्य जी महाराज ने तो छोड़ दी एक फुरफुरी |

लोगों को मसाला मिल गया चुस्की लेने का ।

अब दिन रात अपना लक्ष्य  छोड़कर इसपर ही टीका-टिप्पणी, तर्क-कुतर्क,

थुक्का-फ़जीहत और तू-तू, मैं-मैं  होती रहेगी बस |

राजनीति करने वालों ने इसको वोट बैंक मानकर अपनी दखल देना शुरू कर दिया ।

मीडिया को अपना टी आर पी बढ़ाने  का मसाला मिल गया ।

इस मसले में दखल देकर संत समाज को अपना कद और भी ऊँचा करने का अवसर मिल गया ।

आज देखा जाये तो दो बातों का बोलबाला है –

आदमी अधिक दिख रहे हैं तो राजनीतिक मोड़,

और माया की बात आती है तो भौतिकवादी दौड़ ।

और फिर अपना-अपना कद एक-दूसरे से लम्बा करने की होड़ ।

इसमें भगवान् , संत और संतई कहाँ है ?

इस नाज़ुक दौर में क्या अपनी एनर्जी इस प्रकार से व्यर्थ में लगनी चाहिए ?

मनन करें….

भगवान आस्था से हैं |

भगवान का रूप, रंग भक्त की आस्था से बनता है |

प्रपंच से अलग साधु, संत, सूफी, पीर, कलंदर आदि सबने इश्क़, प्रेम, मोहब्बत आदि को भगवान से जोड़ा है |

जिस रूप में भक्त ने भगवान् को पूजा है, इश्क़ और मोहब्बत की है । उस में भगवान को आना पड़ा है।

प्रेम का जितना अधिक पारावार भक्ति रस से प्रभु के प्रति चढ़ेगा, उतना अधिक ही प्रभु का

सानिध्य भक्त को मिलेगा |

भक्त और भगवान में तो आशिक़ और माशूक का रिश्ता है ।

फिर जिस रूप रंग में वो चाहेगा भगवान को उसमे आना ही पड़ेगा |

भगवान तो भाव और भावना के भूखे हैं

जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तीन तैसी

अब आशिक़ और माशूक़ के बीच कोई तीसरा क्यू …

ये गोपाल राजू के अपने विचार हैं, सब कोई इससे सहमत हो, ये ज़रूरी नहीं ।

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